आ अब लौट जाएँ कि चलने का वक्त हो चला है,
जिंदगी ने सबकुछ देकर भी आंसुओं से छला है।
माँ-बाप छोड़ चले जब उम्र थी केवल सात,
रिश्तों का परायापन देखा होश सँभालने के साथ।
जैसे-तैसे चलता रहा फ़िर तन्हाई के रोग ने छुवा,
साँझ का ढलता सूरज रोज दे जाता है मुझको दुवा।
खुले आसमान में चाँद-तारों के बीच कुछ तलाशता हूँ,
अपने आप से बातें करता रोता हूँ और कभी हँसता हूँ।
बुलंदियों पे पैर रखने को देखे मैंने भी कई सपने थे,
मगर सीढियों में ताले मार गए वो जो मेरे अपने थे।
बुलाते हैं वो बस अब मातम के रोज अपने दर पे,
मैं कहाँ याद आता जब वो खुशी मनाते अपने घर पे।
--क. बो.
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