मंगलवार, 13 नवंबर 2018

मुझको आँखें बंद कर लेने दो


अब और नहीं बस मुझको आँखें बंद कर लेने दो,

नब्ज ख़ुद रुक जायेगी बस साँसें बंद कर लेने दो।


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पता नहीं कोई रहता है या न रहता है,

दिल के भूले बिसरे गली चौबारों में।

आलाव बुझा-बुझा सा लगता है,

पर तपिश बाकी है राख ओढे अंगारों में।



सजना संवारना है क्या अब भी तुम्हें,

सिंगारदान तो धूल और जंग खा रहा है।

पुराने बिंदी काजल से रिझाओ मत उन्हें,

सिंगार की दूकान वो ख़ुद भी चला रहा है।



बेचैनी कैसी थी कि सो भी न सके सारी रात,

आँखें बस अभी लगी ही थी कि मुर्गे ने दी बांग।

बेवफाई के रंग रंगे मेंहदी लगे वो हाथ,

दफ़न कर सारे किस्से भरने लगे फ़िर से मांग।



क़समें न खाओ ऐ आने वाले जमाने के लोग,

क़समें वादों की भूल-भुलैया बहुत बड़ी है ये।

बस में नहीं रहता अब ये बड़ा ग़लत है रोग,

शिकायत आइना से करते कि परछाई नहीं उनकी ये।

_ क. बो.

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