ढह गई प्रेम कुटीर
पागल न बनो !
जरा होश में रहो ये सब सुनकर,
अरे कुछ नहीं है ये सब।
बस शब्दों की कलाकारी है।
उम्र बीत गई इन्तजार में,
खड़े-खड़े लम्बी कतार में,
न रहो आस में, अब कुछ न मिलेगा,
गलियारे में बहुत मारामारी है।
चाहा था जब मैंने, वो न मिली तब,
अब वो आ रही है करीब तो,
मेरे पास वक्त की कमी है,
अब तो इस आँखमिचौली में,
चुपचाप रहना ही होशियारी है।
मैं तो रुका रहा था उस मोड़ पर,
देर तक हाँ बहुत देर तक,
कि आओगी तुम भी सब छोड़कर,
फिर मैं करता भी क्या जब तुम न आयी,
ऐसा जलजला उठा फिर, ढह गई प्रेम कुटीर,
अब इसमें गलती मेरी नहीं सिर्फ तुम्हारी है।
जग-जग कर गुजारी थी वो रातें,
तड़पते-कलपते यही सोचकर कि,
दर्द से अमृत जरूर निकलेगा,
नहीं मिला कुछ मगर, तो दिल सम्भला,
कहकर कि छोड़ो फिजूल की बातें,
अब सीख ली हमने भी दुनियादारी है।
देखो बात को समझो, जरा गौर करो,
मैं तो मैं हूँ, अब भी जैसा कल को था,
तुम्हारे तो आगे और पीछे भी हैं तेरे अपने लोग।
मैं क्या दे सकूँगा, खाली और छोटे हैं मेरे हाथ,
बेहतर है वहीँ रुक जाओ, न कदम बढ़ाओ,
समझ लेंगे हम दोनों में बस सिर्फ दोस्ती-यारी है।
क. बो.
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