मंगलवार, 27 अगस्त 2019

रोज तुझमे ही मरती है


बाती है ये जो तेरे प्रेम की,
जलती सुलगती रहती है।
लम्बी होती जब रातें जाड़ों की,
खाली बिस्तर टटोलकर करवट लेती है।


कौन आया ? कौन आया ? पूछती है,
हर आहट को पाकर मचलती है।
दौड़कर धुंध में तुम्हें तलाशती है,
कोहरे में जब आकृति कोई उभरती है।


दर्द में भी आस लिए फिरती है,
ठंडी हवा संग पागल सी भटकती है।
पेड़ों के ओट से शुन्य को निहारती है,
मायूसी से कभी नजरें झुका लेती है।


कम्कम्पाती सर्दी में पसीने पोंछती है,
तेरे चाहत से ही वो गर्मी पाती है।
तेरे ख्यालों से ही वो सँवरती है,
तुझमें ही जीकर रोज तुझमे ही मरती है।


--क. बो. 

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