रविवार, 15 सितंबर 2019

एक मुहूर्त है तू


कहाँ है तू ?  कहाँ है तू ? कहाँ है तू ?
मालिक मेरे, किधर है तू, नहीं मुझे खबर,
डगर-डगर ढूंढे तुझे, भटक-भटक मेरी नजर।

सवांरता, बनाता तू  तक़दीर की लकीरों को,
भरता है रंग, जोड़कर टूटी हुई तस्वीरों को,
फूलों औ भंवरों में जो होता, मुहब्बत वही है तू ,
कहाँ है तू ?  कहाँ है तू ? कहाँ है तू ?
हमें तेरी जरुरत है, कहाँ है तू ?

दुनिया करती वो जो पहले से तूने तय किया है,
जख्म देके मरहम भी, तूने ही तो दिया है,
दुल्हन के हाथों लगी मेहँदी की चटक सुर्ख रंग है तू ,
कहाँ है तू ?  कहाँ है तू ? कहाँ है तू ?
हमें तेरी जरुरत है, कहाँ है तू ?

समंदर के गर्भ में तूफ़ान की, आहट जब आती है,
लहरें किनारे से मिलके, पाँव उसके धोती हैं,
मझधार में नैय्या को हवा, उछाल-उछाल झुलाती हैं,
रहता है इन्तजार सभी को, वही एक मुहूर्त है तू ,
कहाँ है तू ?  कहाँ है तू ? कहाँ है तू ?
हमें तेरी जरुरत है, कहाँ है तू ?

क.बो. 

शनिवार, 14 सितंबर 2019

तुम्हारी लगाई आग में 


फूल तो फिर खिल जायेंगे बहार आने पर बाग़ में,
पर मेरा तो सब राख हुआ तुम्हारी लगाई आग में। 

गुजर बसर कर रहा था जिंदगी भले तन्हाई में,
तुमने ही मुझको घेरा था आकर मेरी तरुणाई में। 
छला मेरे सपनों को बदलकर बुलबुलों के झाग में,
और मेरा सब राख हुआ तुम्हारी लगाई आग में। 


दिन मुझे वो याद है दिल तोड़ा था तुमने जुलाई में,
ढोते फिर रहे जिंदगी तब से तेरी बेवफाई में। 
क्यों कर रहे हो इजाफा दामन में लगे दाग में,
बची हुई राख को फिर से झोंक रहे आग में। 

चिंगारी को आग बनाने वाले क्या तुम कभी न जलोगे, 
अंगारों के घूंसे, लपटों की चाबुक कभी तुम भी सहोगे। 
रोओगे उस दिन फैसला जब होगा मेरे भाग में, 
भले आज मेरा कुछ न बचा तुम्हारी लगाई आग में। 


क. बो. 
२२. १२.२००५ 
जैसे गरीबी पलती है


बधाई ! आज फिर हिंदी दिवस है,
जानता हूँ बधाई लोगे नहीं हिंदी में,
सचमुच ! हिंदी कितनी बेबस है,
आज फिर हिंदी दिवस है।

हिंदी में बात करके हुआ दूसरे दर्जे का,
हीन भावना बढ़ी है जैसे ब्याज़ हो कर्जे का,
बच्चे भी चाहें कि बोलें हम चंद शब्द अंग्रेजी का,
अन्यथा पिछड़ा समझे जायेंगे, जंजाल अपने ही जी का। 

कहते हैं राष्ट्रभाषा है, और आगे ले चलना है,
बढ़ती भी है कि बस अपनों में सिमटी रहती है,
पुरानी पीढ़ी के कन्धों सहारे ही चल लेती है,
नयी पीढ़ी तो शायद इसे बोझ ही समझती है।

तमाम योजनाओं के रहते भी जैसे गरीबी पलती है,
हिंदी उत्थान कार्यक्रम में भी अंग्रेजी की तूती बोलती है,
हर प्रयास के बावजुद हिंदी दोगला व्यवहार पाती है,
सोच है आम कि हिंदी नहीं, अंग्रेजी समृद्धि दिलाती है।

जो हिंदी के बुद्धिजीवी, सेवक और रचनाकार हैं,
बड़े लगन से डटे हुए फिर भी जीविका हेतू लाचार हैं,
पढता सुनता कौन उनकी रचनाओं को, वे हुए बेरोजगार हैं,
 पुस्तकें छपवा गवाँ दी पूँजी बन गए भारी कर्जदार हैं।

क. बो. 

रविवार, 1 सितंबर 2019

भारी लज्जा के मारे


धन्य -धन्य भाग्य हमारे,
तुम जो यहाँ पधारे,
जब से सुना है तुम्हारे बारे,
खुद को तभी से तुमपे हैं वारे।

भारी लज्जा के मारे,
झुके हुए मेरे नैन बेचारे,
तेरे रौनक से हारे,
मेरे बदन के सितारे।

रोम -रोम उत्तेजित हो सारे,
जैसे कर रहे हों ईशारे,
सुरमई  वो शाम के नज़ारे,
मन मोह रहे सतरंगी फव्वारे।

नीलाभ क्षितिज के उस किनारे,
जीवित हूँ तेरी स्मृति के सहारे,
 निःशब्द हो मन मंदिर के द्वारे,
तेरी सूरत निहारूं मेरे प्यारे।

--क. बो.
१७. ०२. २००१ 


एक मुहूर्त है तू कहाँ है तू ?  कहाँ है तू ? कहाँ है तू ? मालिक मेरे, किधर है तू, नहीं मुझे खबर, डगर-डगर ढूंढे तुझे, भटक-भटक मेरी नजर। ...