जैसे गरीबी पलती है
बधाई ! आज फिर हिंदी दिवस है,
जानता हूँ बधाई लोगे नहीं हिंदी में,
सचमुच ! हिंदी कितनी बेबस है,
आज फिर हिंदी दिवस है।
हिंदी में बात करके हुआ दूसरे दर्जे का,
हीन भावना बढ़ी है जैसे ब्याज़ हो कर्जे का,
बच्चे भी चाहें कि बोलें हम चंद शब्द अंग्रेजी का,
अन्यथा पिछड़ा समझे जायेंगे, जंजाल अपने ही जी का।
कहते हैं राष्ट्रभाषा है, और आगे ले चलना है,
बढ़ती भी है कि बस अपनों में सिमटी रहती है,
पुरानी पीढ़ी के कन्धों सहारे ही चल लेती है,
नयी पीढ़ी तो शायद इसे बोझ ही समझती है।
तमाम योजनाओं के रहते भी जैसे गरीबी पलती है,
हिंदी उत्थान कार्यक्रम में भी अंग्रेजी की तूती बोलती है,
हर प्रयास के बावजुद हिंदी दोगला व्यवहार पाती है,
सोच है आम कि हिंदी नहीं, अंग्रेजी समृद्धि दिलाती है।
जो हिंदी के बुद्धिजीवी, सेवक और रचनाकार हैं,
बड़े लगन से डटे हुए फिर भी जीविका हेतू लाचार हैं,
पढता सुनता कौन उनकी रचनाओं को, वे हुए बेरोजगार हैं,
पुस्तकें छपवा गवाँ दी पूँजी बन गए भारी कर्जदार हैं।
क. बो.
बधाई ! आज फिर हिंदी दिवस है,
जानता हूँ बधाई लोगे नहीं हिंदी में,
सचमुच ! हिंदी कितनी बेबस है,
आज फिर हिंदी दिवस है।
हिंदी में बात करके हुआ दूसरे दर्जे का,
हीन भावना बढ़ी है जैसे ब्याज़ हो कर्जे का,
बच्चे भी चाहें कि बोलें हम चंद शब्द अंग्रेजी का,
अन्यथा पिछड़ा समझे जायेंगे, जंजाल अपने ही जी का।
कहते हैं राष्ट्रभाषा है, और आगे ले चलना है,
बढ़ती भी है कि बस अपनों में सिमटी रहती है,
पुरानी पीढ़ी के कन्धों सहारे ही चल लेती है,
नयी पीढ़ी तो शायद इसे बोझ ही समझती है।
तमाम योजनाओं के रहते भी जैसे गरीबी पलती है,
हिंदी उत्थान कार्यक्रम में भी अंग्रेजी की तूती बोलती है,
हर प्रयास के बावजुद हिंदी दोगला व्यवहार पाती है,
सोच है आम कि हिंदी नहीं, अंग्रेजी समृद्धि दिलाती है।
जो हिंदी के बुद्धिजीवी, सेवक और रचनाकार हैं,
बड़े लगन से डटे हुए फिर भी जीविका हेतू लाचार हैं,
पढता सुनता कौन उनकी रचनाओं को, वे हुए बेरोजगार हैं,
पुस्तकें छपवा गवाँ दी पूँजी बन गए भारी कर्जदार हैं।
क. बो.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें