शुक्रवार, 19 अप्रैल 2019

ख़रीद लो न बाबूजी 

गर्मी की झुलसाती दोपहरी में,
सीधे माथे  पर, 
तपता गर्म तवा सा सूरज,
जलने-जलाने को तत्पर, 
ज़मीन थी धधकती,
कोलतार की गर्म भट्टी जैसे,
लू की लपलपाती प्यासी लपटें 
खून-पसीना चूसने लपकती।

बेघर जीव छांव कब्जाने को तरसे, 
सरकती छाया संग बार-बार हटे,
उधर एक आभागा विस्थापित, 
डरता याद कर अपने अतीत को, 
छिन चूका उसका जीने का हक़,  
घर ज़मीन से अपने निष्काषित, 
पर जिन्दा थी लालसा और जीने को, 
तभी तो आया था इस शहर तक, 
यहाँ के स्वार्थ से अनजान, 
मजबूर था उपेक्षित होने को, 
लगातार जीवन संघर्ष की थकान।

था वो भी बाप एक, 
जो गोद में सोते कुपोषित बच्चे को, 
गंदे-मैले गमछे से बांधे, 
देखता आते-जाते को हरेक,
अग्निशमन पेट की करने को, 
चौराहे के रेड लाइट पर थके-माँदे, 
जब-जब हो जाती लाल बत्ती,
लपक पड़ता था उस ओर, 
कभी इस कार तो कभी उस कार, 
पूरी ताकत से लगाता जोर,
रूकती कार तो पास जाकर बढ़ाता, 
दो गुलाब का छोटा गुलदस्ता, 
कि ले ले कोई पैसे कुछ देकर, 
मगर आभास मात्र से उसके,
बदल ले जैसे हर कोई रास्ता,
कार सवार बैठे रहते आँखें फेरकर।

न जब किसी का ध्यान खींच पाता,  
छाती में बंधे सोते बच्चे को दिखाता,
एक हाथ से करके इशारा,
पांच रूपये में ही सही,
खरीद लो न बाबूजी,
इतना ही पाता बोल बेचारा,
बाकी बातें अपने मन में कही,
कि दोपहर हो गई है,
एक भी आज न बिका हमारा,
ऐंठ रही आंतें भूख के मारे,
नजरें मृग मरीचिका  सी ,
धोखा देती थी बार-बार,
बताये किसे ये दुखड़े सारे,
कि ये दिखावा नहीं सच्चाई थी।

तभी देखा एक कार के अंदर,
मेमसाब पुचकारती अपने कुत्ते को,
बगल में बिठाये खिलाती बिस्किट थी,
कोमल अँगुलियों से अपने सुन्दर,
काश, दो बिस्किट दे देती अपने को,
पर कहाँ किस्मत उसकी ऐसी थी,
जैसे ही माँगा कुछ खाने को,
देवी ने तो देखा तक न इस इंसान को,
और कार आगे बढ़ गई थी,
बजते हॉर्न के अप्रिय शोर में,
ट्रैफिक खुल गई थी बढ़ने को,
क्योंकि लाल बत्ती हरी हो गई थी।
जा खड़ा हुआ वो किनारे एक छोर में,
इन्तजार में फिर से बत्त्ती के लाल होने को।

- क. बो.


  

  











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