गुरुवार, 16 मई 2019


राहें अब भी सूनी हैं।


अभी-अभी देखकर आया, 
कि राहें अब भी सूनी हैं। 
बस -
पहले की तरह,
हर मोड़ पर एक,
धुंधली परछाई है।  

हवा ने रुख जरूर बदला है,
पर -
वो बेगानी और धुँधली सी याद,
अब भी दिल में आती है। 
रह-रह कर, 
विरह-वेदना के कम्पन में,
यादों के हर कण-कण में,
हाँ
अब भी उसे पाता हूँ। 

रीझा करता था कि,
हमारी भी तो कोई है,
सुर को साज देने वाली,
नयन मदिरा पिलाने वाली,
मेरे सपनो की शहजादी। 

मगर ये तो है बस,
एक अधूरा सपना-सा,
कि वो आयी-
जुड़े में फूल खोंसकर,
बाँहों में प्यार भरकर,
खड़ी रही खामोश। 
चाहा कि, 
बाँहों में बाँध लूँ,
जाने इस बार दूँ। 

मगर-
सपना तो सपना होता है,
सबकुछ कहाँ अपना होता है?
चली गई जैसे थी आयी,
मगर कहाँ
पता नहीं-
अरसे बीत गए,
खड़ा हूँ बस उन राहों में,
अब भी- 
कि देखूं आती कहाँ से है?
वह-
या उसकी यादें,
कि शायद फ़िर जाए। 

मगर-
राहें तो सूनी हैं,
हाँ-
अभी-अभी तो देखकर आया
पहले कि तरह,
राहें अब भी सूनी हैं।
-क. बो.



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