रविवार, 17 मार्च 2019

फिर विस्थापन 

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हा -हा- हा- हा- हा !
मै तुम्हारा अतीत हूँ !
क्या कमाल की बात है!
मुझे यक़ीन नहीं हो रहा!
पर तेरे लिए भयभीत हूँ,
कि ये फिर से हो रहा है।

हाँ ! हाँ! ये एक बार फिर हो रहा है,
फिर से खड़े हो विस्थापन के कगार पर,
मुझे पता था,
फिर से तुम चलोगे अंगार पर,
तुम्हारी यही नियति है,
ये तो ज़ुल्मों की अति है।

इसमें तुम्हारी नहीं कोई गलती है ,
उनकी है.,
फिर भी तुम्हारी ही गलती है,   
कि तुम  सीधे- सादे जीव हो।
तुम शान्ति पसंद हो,
सबकुछ के लिए रजामंद हो,
प्रकति पूजक हो।

तुम सरल मिज़ाज़ के,
खेत खलिहानों के सृजक हो,
प्रकृति में समाहित हो,
अक्सर खदेड़े जाते हो,
जब जीवन में कुछ पाने लगते हो,
उजाड़ दिए जाते हो,
नया फिर कहीं ठिकाना बनाते हो,
पसीने बहाकर,
फिर से गृहस्ति बसाकर,
तुम कृषक व् सृजक हो,
विध्वंसक नहीं,
कंगाली में भी ईमानदार हो,
मेहनत से ही पेट भरते हो,
फिर क्या  है जो इस कदर,
बार- बार विस्थापन के शिकार हो।

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अबकी बार तुमपे गंभीर इल्जाम है।
कि तुम अपने ही जंगल व् प्रकृति के दुश्मन हो,
जबकि जंगल तुम्हारा घर है,
प्रकृति तुम्हारी पूज्य आराध्य है,
सदियों पहले तुमने शरण पायी थी,
घनघोर डरावने बीहड़ जंगलों में,
कठिन जीविका पर भी सन्तुष्ट थे,
अब इन्होंने शहरों को जीने लायक न रखा,
तो तुम्हारी शुद्ध हवादार वातावरण को लेना चाहते
ये घोषित कर के,
कि तुम अपने घर के भक्षक हो। 

इसलिए तुम्हे अपने घर रहने का,
कोई अधिकार नहीं बनता,
जिस वन- उपवन में तुमने,
जन्म लेकर जीवन गुजारा सदियों से,
अपने मूल स्थल से निकाले जाकर,
जिस वन को तुमने समझा,
प्रकृति के हर चीज़ को,
अपने अपने टोटम बनाकर,
रक्षा की सदा- सर्वदा।
अब तुम्हे उन्ही का विनाशक  बताकर,
बेदखल करना है फिर वहां से।
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पर अब जाओगे किधर को,
शरण लेने को अब कौन सी जगह है?
क्या है ऐसी जगह बोलो?
शायद एक है जगह बची,
जो चिर शांति स्थल है,
वहां तो जाना है सबको एक दिन,
शायद तुम्हे इसबार वहीँ खदेड़ा जाना है।

तैयार हो क्या तुम?
या-
इसबार कुछ करोगे?
सोचो वो तो सांस लेते हैं,
तुम्हारी बचाई जंगलों की वजह से,
उनके बच्चे झूलते हैं झूलों पर,
तुम्हारी रोपी हुई पेड़ों के डाल पर,
पत्नियां क्रीड़ा उनकी करती हैं,
बारिस जब तुम बुलाते हो।
माँ- बाप उनके खोजते आध्यात्म,
तुम्हारी बनाई शान्ति वन पर,
वो पैसे की खेती बोते,
वन जंगल कटवा कर,
नीति  नियम  को धन बल से साधकर,
उद्योग खदान के नाम पर,
देकर तुमको मजदूरी रोजगार,
कहते वो अर्थव्यवस्था मजबूत कर,
देश को आगे बढ़ा रहे हैं।

बात जबकि उलट है,
संशाधन बेच वो आमिर हुए हैं,
तुम जान समझ न पाए,
क्योंकि तालीम न दी तुम्हे किसी ने,
यही सोचकर कि,
वक्त आने पर फिर तुम्ही काम आओगे उनके,
करोगे वैसा ही जैसा ये चाहेंगे,
उठा न सकोगे अपनी आवाज,
यही है बड़ा मलाल कि,
जब मददगार कोई बताये तुम्हे कि,
कैसे तुम ठगे जाते हो,
तो-
उनको देश द्रोही बताकार,
जेल का रास्ता दिखाते,
क्या करोगे ऐसे में बोलो?
न करोगे क्या प्रस्थान थक कर?
दूसरी उस दुनिया की ओर,
आ न सकोगे जहाँ से लौटकर।

या -
कुछ करोगे इस बार ?
देखो! अब तुम अकेले तो हो नहीं,
बस एक बन जाओ मिलकर,
डट जाओ अलग-अलग मोर्चों  पर,
अपने एक कदम तो बढ़ाओ,
गुरिल्ला की भांति लड़ो,
बाज़ की तरह झपटो,
शेर की भांति पंजे मारो,
सांप की तरह डस कर छुप जाओ,
मज़बूरी है तुम्हारी,
लड़ न सकोगे आमने- सामने,
ख़त्म कर दिए जाओगे।

इसलिए अब बांसुरी न बजाओ,
अखाड़े में छोड़ दो झूमना,
सांस जोड़कर फूंको नरसिंघा,
गूंजने दो रणभेरी हुंकार,
सुनने दो दुनिया को दहाड़ और ललकार,
बहुत हो गया अब,
गर जाना ही है इस जहान  से,
तो चुपचाप क्यों जाना है,
बता दो कि हिस्सा हो तुम भी पृथ्वी के।

इन्होनें किया नजरअंदाज तुम्हे,
तुम क्यों सोचो फिर इनके लिए,
जैसे को तैसा होने दो,
कदम न पीछे मोड़ो ,
लड़ाते हैं तुम्हे ये अपनों में ही,
बहक तुम जाते इनकी बातों में,
विवेक के अपने द्वार तो खोलो,
चाल इनकी बूझकर इन्हे तोलो,
बहुत बड़ी साजिश है ये हाँ !

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इसबार इनकी कोशिश है कि,
सदा -सर्वदा तुम गुलाम हो जाओ,
बर्बाद हो मिट जाओ छोड़कर सब अपना,
कहते गंवार हो तुम अनपढ़,
गंदे बदबूदार और जंगली,
समझ नहीं तुम्हे रत्ती भर,
तुम्हारी मिल्कियत वन जंगल पर,
गड़ी है अब इनकी नजर,
ये अंग्रेजों  से हैं बदतर,
तुम्हे फिर से लूटने आये हैं,
जाओगे कहाँ अब तुम बचकर,
मिटा देंगे तुम्हे ये कुचलकर,
क्या सोचते हो।  जल्दी करो,
कमान  में अपने तीर भरो,
आगे बढ़ो अब न डरो,
मरना ही है तो लड़कर मरो।

क.बो.












बुधवार, 14 नवंबर 2018

ये पगली आँखें


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पूर्ण परिपक्व मधुमास में,

मधुर मिलन सहवास में,

प्रिय- दर्शन के उल्लास में,

आनंदातिरेक से लबलबाए,

पलकों के गर्भ से निकल आए,

अश्रुजल में ख़ुद को,

धोती नहलाती आँखें।



आलसी साँसों को बुहारती,

उबासी भरी अंगड़ाई मरोड़ती,

बेसुध धड़कनों को धागे में पिरोती,

हर्षित ह्रदय में हार माला बनाती,

मंद-मंद मुस्काती आँखें।



श्रिंगार की भूखी- प्यासी,

प्रेम-महल की रखवाली दासी,

फूल- पत्तियों के रंग से,

संवरती अपने ही ढंग से,

सुंदर स्वप्नों को धर के,

काले मेघों से काजल भरके,

सजती-धजती आँखें।



प्रिय के अचक आगमन से,

भौंचक, घबराई अपूर्ण तैयारी से,

सकुचाई, सकपकाई, अकुलाई,

चौखट पर दुबकी दर्पण छुपाई,

सहज लज्जा से लजाती आँखें।



प्रिय के एकटक निहारने से,

व्याकुल व्योम के झरने से,

प्रेम-ज्वर से कंपकपाती,

स्पर्श-ताप से झुलसाती,

समर्पण करने को कसमसाती,

झुकती सर झुकाती आँखें।



प्रेम-आधार पर खड़ी हवेली में,

नजरों के आँख-मिचौली में,

नवजात चाँद-सी चितवन तले,

यौवन की नित पवन चले,

मधुशाला की बन मधुबाला,

मधु से भर- भर प्याला,

परोसती, पिलाती रसीली आँखें।



प्रेम-रस वर्षा में तर-ब-तर,

बाँहों में जकड़न का असर,

प्रेम प्याली में अधरों को रखती,

चोरी- चोरी कनखियाँ भरती,

मादक अधखुली आँखें।



रसिक रसपान में मदमस्त,

मल्लयुद्ध में होकर पस्त,

मतवाली मदहोश बेहोश,

होती जा रही खामोश,

बुदबुदाती, लडखडाती आँखें।



सरस-सलिल सरोवर में।

बालिकाएं मग्न हो जल-क्रीड़ा में,

संपिले कमल- डंठल तोड़ डराती,

खिलखिलाती हास्य- ध्वज फहराती,

वैसी ही चंचल शरारती आँखें।



झिझक कोहरे के हटते ही,

बादल लज्जा के छंटते ही,

प्रेमानंद से गदगद होकर,

फूल कलियों से लकदक होकर,

सजे सेज पर सवार होकर,

लरजती पसरती आँखें।



प्रेम-विनिमय व्यापार में,

तीव्र -प्रज्वलित अंगार में,

लुटती -लुटाती भष्म होती,

कामदेव-बाण वेधित होती,

युद्ध में धरासायी आँखें।



तृप्त क्षुधा संतुष्ट ह्रदय,

मीलों जैसे दुरी करके तय,

बेलौस, बेसुध पड़ी निढाल,

साध कर जैसे तीनो काल,

पड़ी निशब्द शिथिल आँखें।



सूर्यास्त बाद बंद होती पंखुडियाँ सी,

अँधेरा छाते बंद होती खिड़कियों सी,

धीरे -धीरे पलक भार से दबी,

तृप्त तृष्णा के भार से लदी,

सुस्ताती बोझिल आँखें।



थके- मांदे रात्रि का बीतता पहर,

भोर होते ही छोड़ना है शहर,

प्रिय के पहलु में लेटकर सोचती,

निंद्रा-नक्षत्र पर उतरती,

बलखाई अलसाई आँखें।



पलकों की चादर ओढ़कर,

सुखद-साधना में तल्लीन होकर,

बड़ी मुश्किल से अभी-अभी,

सोयी है ये पगली आँखें।

--क. बो.

मंगलवार, 13 नवंबर 2018

मुझको आँखें बंद कर लेने दो


अब और नहीं बस मुझको आँखें बंद कर लेने दो,

नब्ज ख़ुद रुक जायेगी बस साँसें बंद कर लेने दो।


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पता नहीं कोई रहता है या न रहता है,

दिल के भूले बिसरे गली चौबारों में।

आलाव बुझा-बुझा सा लगता है,

पर तपिश बाकी है राख ओढे अंगारों में।



सजना संवारना है क्या अब भी तुम्हें,

सिंगारदान तो धूल और जंग खा रहा है।

पुराने बिंदी काजल से रिझाओ मत उन्हें,

सिंगार की दूकान वो ख़ुद भी चला रहा है।



बेचैनी कैसी थी कि सो भी न सके सारी रात,

आँखें बस अभी लगी ही थी कि मुर्गे ने दी बांग।

बेवफाई के रंग रंगे मेंहदी लगे वो हाथ,

दफ़न कर सारे किस्से भरने लगे फ़िर से मांग।



क़समें न खाओ ऐ आने वाले जमाने के लोग,

क़समें वादों की भूल-भुलैया बहुत बड़ी है ये।

बस में नहीं रहता अब ये बड़ा ग़लत है रोग,

शिकायत आइना से करते कि परछाई नहीं उनकी ये।

_ क. बो.

रोता हूँ और कभी हँसता हूँ।

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आ अब लौट जाएँ कि चलने का वक्त हो चला है,
जिंदगी ने सबकुछ देकर भी आंसुओं से छला है।

माँ-बाप छोड़ चले जब उम्र थी केवल सात,
रिश्तों का परायापन देखा होश सँभालने के साथ।

जैसे-तैसे चलता रहा फ़िर तन्हाई के रोग ने छुवा,
साँझ का ढलता सूरज रोज दे जाता है मुझको दुवा।

खुले आसमान में चाँद-तारों के बीच कुछ तलाशता हूँ,
अपने आप से बातें करता रोता हूँ और कभी हँसता हूँ।

बुलंदियों पे पैर रखने को देखे मैंने भी कई सपने थे,
मगर सीढियों में ताले मार गए वो जो मेरे अपने थे।

बुलाते हैं वो बस अब मातम के रोज अपने दर पे,
मैं कहाँ याद आता जब वो खुशी मनाते अपने घर पे।

--क. बो.

एक मुहूर्त है तू कहाँ है तू ?  कहाँ है तू ? कहाँ है तू ? मालिक मेरे, किधर है तू, नहीं मुझे खबर, डगर-डगर ढूंढे तुझे, भटक-भटक मेरी नजर। ...